विश्‍वास तुम्‍हारा



शहर मे जब हो
अराजकता
सुर‍क्षित ना हो आबरू
स्‍वतंत्र ना हो सासें
मोड़ पर खड़ी हो मौत
तो मैं कैसे करू विश्‍वास तुम्‍हारा,
बाहर से दिखते हो सुन्‍दर
रचते हो भीतर भीतर ही षड़यंत्र
ढूंढते रहते हो अवसर
किसी के कत्‍ल का
तो मैं कैसे विश्‍वास कंरू तुम्‍हारा,
तुम्‍हारा विश्‍वास नहीं कर सकता मैं
सांसों में तुम्‍हारी बसता है कोई और
तुम बादे करते हो किसी और से
दावा
करते हो तुम विश्‍वास का
परन्‍तु तुम में भरा  है अविश्‍वास,
माना विक्षिप्‍त हूं मैं
कंरू मैं कैसे विश्‍वास तुम्‍हारा
तुम और तुम्‍हारा शहर
नहीं है मेरे विश्‍वास का पात्र। 

About रौशन जसवाल विक्षिप्‍त

अपने बारे में कुछ भी खास नहीं है बस आम और साधारण ही है! साहित्य में रुचि है! पढ लेता हूं कभी कभार लिख लेता हूं ! कभी प्रकाशनार्थ भेज भी देता हूं! वैसे 1986से यदाकदा प्रकाशित हो रहा हूं! छिट पुट संकलित और पुरुस्कृत भी हुआ हूं! आकाशवाणी शिमला और दूरदर्शन शिमला से नैमितिक सम्बंध रहा है! सम्‍प्रति : अध्‍यापन
यह प्रविष्टि काव्‍य, सहित्‍य में पोस्ट की गई थी। बुकमार्क करें पर्मालिंक

10 Responses to विश्‍वास तुम्‍हारा

  1. नीलम अंशु कहते हैं:

    आज का यथ्रार्थ यही है लेकिन इतना भी निऱाश होने की आवश्यकता नहीं, अभी भी कुछ अच्छे और विश्वसनीय पात्र बचे हुए हैं इस जहां में।
    बस चंद लोगों की वजह से हम हरेक को शक के पैमाने से देखते हैं और यहीं चूक जाते हैं हम।

    हमारे ऑफिस में एक किसी अच्छी बुक कंपनी के प्रतिनिधि के तौर पर किताबों की प्रोमोशन के लिए एक युवक दो-तीन बार आया था लगभग चौदह पंद्रह साल पहले। मेरा बहुत परिचित भी नहीं था। उसने मुझसे एप्लीकेशन फॉर्म भरने के लिए 50 रुपए मांगे और अपने घऱ के पते की एक स्लिप पकड़ा गया। मैंने एक बेरोजगार युवक की सहायता समझ उस स्लिप को कैजुयली टेबल के ड्रॉयर में सरका दिया यह सोच कर कि भविष्य ही बताएगा कि वह युवक फिर कभी आएगा या नहीं। और आज तक उसका पता नहीं। मुझे तो नाम या शक्ल तक याद नहीं। यह ज़रूरी तो नहीं था कि फॉर्म भरते ही उसे नौकरी मिल ही जाती।

    इस तरह के कई किस्से और हैं महानगर में रहने के नाते। क्या होता है कि ऐसे में हम कई बार सही मायने मे ज़रूरतमंद व्यक्ति की सहायता करने से चूक जाते हैं।

    माना कि विक्षिप्त हूं……..

    सुंदर अभिव्यक्ति।

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  2. एक सम्वेदनशील व्यक्ति का वास्तविक पीड़ा…

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  3. सुंदर और संवेदनशील प्रस्तुति…..

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  4. aarkay कहते हैं:

    बहुर सुंदर शब्दों में आज के यथार्थ को दर्शाती कविता !

    “मैं किस के हाथ पे अपना लहू तलाश करूं
    तमाम शहर नें पहने हुए हैं दस्ताने “

    -किस का विश्वास करें किस का न करें
    असमंजस की स्थिति रहती है .

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  5. JAGDISH BALI कहते हैं:

    सच्ची बात कही थी मैने, लोगों ने सूली पर चढ़ाया !
    ज़हर का जाम पिलाया. फ़िर भी चैन न आया !

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