ग़ज़ल

पत्ते जीवन के कब बिखर जाए क्‍या मालूम
शाम जीवन की कब हो जाए क्‍या मालूम
बन्‍द हो गए है रास्‍ते सभी गुफतगू के
अब वहां कौन कैसे जाए क्‍या मालूम
झूठ पर कर लेते है विश्‍वास सब
सच कैसे सामने आए क्‍या मालूम
दो मुहें सापों से भरा है आस पास
दोस्‍त बन कौन डस जाए क्‍या मालूम
विक्षिप्‍त की दुनिया है बेतरतीव बेरंग
कोई संगकार सजा जाए क्‍या मालूम

About रौशन जसवाल विक्षिप्‍त

अपने बारे में कुछ भी खास नहीं है बस आम और साधारण ही है! साहित्य में रुचि है! पढ लेता हूं कभी कभार लिख लेता हूं ! कभी प्रकाशनार्थ भेज भी देता हूं! वैसे 1986से यदाकदा प्रकाशित हो रहा हूं! छिट पुट संकलित और पुरुस्कृत भी हुआ हूं! आकाशवाणी शिमला और दूरदर्शन शिमला से नैमितिक सम्बंध रहा है! सम्‍प्रति : अध्‍यापन
यह प्रविष्टि काव्‍य, सहित्‍य में पोस्ट की गई थी। बुकमार्क करें पर्मालिंक

9 Responses to ग़ज़ल

  1. बस यही सब रंग हैं दुनिया के…..

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  2. Amit Chandra कहते हैं:

    बेहतरीन प्रस्तुति। शानदार गजल। आभार।

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  3. aarkay कहते हैं:

    विक्षिप्त जी, बहुत देर से आए पर बहुत दरुस्त आए

    ” मैं किस के हाथों पे अपना लहू तलाश करूं
    तमाम शहर ने पहने हुए हैं दस्ताने “

    उम्दा ग़ज़ल !

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  4. Anand Dwivedi कहते हैं:

    bahut sundar bhaav hai Roshan ji shukriya !

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  5. Abnish Singh Chauhan कहते हैं:

    दो मुँहे सांप: आज ऐसा ही दिखाई दे रहा है.
    बहुत सुन्दर. बधाई स्वीकारें

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  6. मुकेश नेगी कहते हैं:

    अच्छा संकलन अनुभूति का ,बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति.

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  7. 'दो मुहें साँपों से भरा है आस पास

    दोस्त बन कौन डस जाये क्या मालूम '

    …………………….बढ़िया शेर ….उम्दा ग़ज़ल

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